एक बार श्रीकृष्ण की रानी सत्यभामा, उनके भक्त गरुड़ और सुदर्शन चक्र को अपने ऊपर अभिमान हो गया। सत्यभामा को अपने रूप का और उन दोनों को अपनी गति और शक्ति पर अहंकार हो गया। भगवान श्रीकृष्ण ने तीनों का अहंकार नष्ट करने की योजना बनाई।

उन्होंने गरुड़ से कहा, 'तुम हनुमान के पास जाओ और कहना कि भगवान राम, माता सीता के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। इधर श्रीकृष्ण ने सत्यभामा से कहा कि देवी! आप सीता के रूप में तैयार हो जाएं और स्वयं द्वारकाधीश ने राम का रूप धारण कर लिया।

मधुसूदन ने सुदर्शन चक्र को आज्ञा देते हुए कहा कि तुम महल के प्रवेश द्वार पर पहरा दो और ध्यान रहे कि मेरी आज्ञा के बिना महल में कोई प्रवेश न करे। गरुड़ ने हनुमान के पास पहुंचकर कहा कि हे वानरश्रेष्ठ! भगवान राम, माता सीता के साथ द्वारका में आपसे मिलने के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं। मैं आपको अपनी पीठ पर बैठाकर शीघ्र ही वहां ले जाऊंगा।

हनुमान ने कहा, आप चलिए, मैं आता हूं। गरुड़ ने सोचा, पता नहीं यह बूढ़ा वानर कब पहुंचेगा? यह सोचकर गरुड़ शीघ्रता से द्वारका की ओर उड़े। पर यह क्या? महल में पहुंचकर गरुड़ देखते हैं कि हनुमान तो उनसे पहले ही महल में प्रभु के सामने बैठे हैं। गरुड़ का सिर लज्जा से झुक गया। तभी श्रीराम ने हनुमान से कहा कि पवनपुत्र! तुम बिना आज्ञा के महल में कैसे प्रवेश कर गए? क्या तुम्हें किसी ने प्रवेश द्वार पर रोका नहीं?

हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए सिर झुकाकर अपने मुंह से सुदर्शन चक्र को निकालकर प्रभु के सामने रख दिया और कहा कि प्रभु! आपसे मिलने से मुझे इस चक्र ने रोका था। मुझे क्षमा करें। हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए श्रीराम से प्रश्न किया- हे प्रभु! आज आपने माता सीता के स्थान पर किस दासी को इतना सम्मान दे दिया कि वह आपके साथ सिंहासन पर विराजमान है? अब रानी सत्यभामा का अहंकार भंग होने की बारी थी। उन्हें सुंदरता का अहंकार था, जो पल भर में चूर हो गया था। वे तीनों भगवान के चरणों में झुक गए।

कथासार

हमें अपने रूप और शक्ति पर कभी घमंड नहीं करना चाहिए। संसार में एक से बढ़कर एक विशेषता वाले व्यक्ति मौजूद हैं।

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