प्रश्न:आपने कहा कि शोरगुल और व्यवधान बाहर संसार में नहीं, बल्कि हमारे अपने ही अहंकार और मन के कारण हैं, लेकिन संत और रहस्यदर्शी हमेशा शांत और निर्जन स्थानों पर ही क्यों रहते हैं?

क्योंकि वे अभी तक संत एवं रहस्यदर्शी नहीं हैं। वे अभी भी खोज रहे हैं, श्रम कर रहे हैं। वे साधक हैं, सिद्ध नहीं। वे अभी पहुंचे नहीं हैं। शोरगुल उन्हें व्यवधान देगा, भीड़ उन्हें व्यवधान देगी। भीड़ उन्हें वापस अपने तल पर खींचेगी। वे अभी भी कमजोर हैं, उन्हें सुरक्षा चाहिए। उनमें अभी आत्म-विश्वास नहीं है। उन्हें लोभ पकड़ सकता है। उन्हें एकांत निर्जन में अपनी रक्षा करनी पड़ती है, जहां वे विकसित और मजबूत हो सकें। जब वे मजबूत हो जाएंगे तो कोई समस्या न रहेगी।

महावीर जंगलों में चले गए। बारह वर्ष तक वह अकेले और मौन रहे, न किसी से बात की न गांवों-शहरों में गए फिर वह संबुद्ध हुए। तब वह संसार में वापस आ गए। बुद्ध छह वर्ष तक बिल्कुल मौन में रहे फिर वह संसार में वापस आ गए। कोई भी जब साधना में होता है तो उन्हें सुरक्षा की आवश्यकता होती है, जब वे सिद्ध हो जाते हैं तो कोई समस्या नहीं रहती। तो यदि तुम किसी संत को भीड़ में जाने से भयभीत पाओ तो समझना कि अभी वह बच्चा ही है, अभी वह बढ़ रहा है। वरना कोई संत भीड़ में जाने से क्यों डरेगा? भीड़भाड़, शोरगुल, संसार, सांसारिक चीजें उसका कुछ नहीं बिगड़ सकतीं। उसके चारों ओर का पागलपन उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

वह अपने ढंग से जी सकता है; उसका शून्य जहां जीना चाहे, वहीं जी सकता है। लेकिन प्रारंभ में अकेले होना, सुंदर प्राकृतिक वातावरण में होना बेहतर है। तो ऐसा मत सोचो कि तुम शोरगुल वाली बंबई में रहते हो इसलिए तुम संत हो, या प्रौढ़ हो गए हो और सिद्ध हो गए हो। यदि तुम विकसित होना चाहते हो तो तुम्हें भी कभी-कभी कुछ समय के लिए एकांत में जाना पड़ेगा-भीड़ से बाहर, संसार की चिंताओं, संबंधों, चीजों से परे-किसी ऐसे स्थान पर जहां तुम अकेले हो और दूसरे तुम्हें परेशान न कर सकें। अभी तो तुम्हें परेशान किया जा सकता है, पर एक बार तुममें बल आ जाए, एक बार तुम्हें तरिक शक्ति मिल जाए, एक बार तुम सुस्पष्ट हो जाओ और तुम्हें पता लग जाए कि अब कोई तुम्हारे तरिक केंद्र को नहीं हिला सकता तो तुम कहीं भी जा सकते हो।

तब मौन का आकाश तुम्हारे साथ चलता है क्योंकि तुम उसके रचयिता हो। तब अपने चारों ओर तुम एक तरिक मौन निर्मित कर लेते हो। कोई उस मौन में प्रवेश नहीं कर सकता। कोई शोर उसमें व्यवधान नहीं डाल सकता। लेकिन जब तक तुम केंद्रित नहीं हुए हो, तब तक यह मत मानो कि तुम अशांत नहीं होगे। तुम व्यवधान के आदी हो गए हो। नस-नस अशांति भरी है, तुम लगातार अशांत रहते हो। अभी तुम्हें कोई परेशानी नहीं हो रही, क्योंकि अनुभव करने के लिए भी कभी-कभी परेशान न होने की जरूरत होती है। केवल तभी तुलना में तुम देख सकते हो। तुम सतत ही अशांत हो पर तुम इसके आदी हो गए हो। तुम सोचते हो कि जीवन ऐसा ही है। अच्छा अगर कभी-कभी तुम हिमालय चले जाओ, किसी सुदूर गांव में वन में जाकर कुछ दिन मौन में रहना अच्छा रहेगा, जैसे कि पूरी मनुष्यता समाप्त हो गई हो। फिर बंबई वापस लौट आओ।

फिर तुम्हें पता लगेगा कि तुम कितने व्यवधानों में जी रहे थे। अचानक तुम अशांत हो जाओगे। अब तुम्हारे पास विपरीत अनुभव है। तो साधकों के लिए एकांत अच्छा है; सिद्धों के लिए व्यर्थ है। दो तरह के गलत लोग होते हैं। पहले तरह के लोगों को अगर कहो कि वे ही अशांत हैं, तो वे मौन का स्वाद लेने कभी एकांत में नहीं जाएंगे। फिर दूसरे लोग हैं, जिन्हें तुम मौन में, एकांत में जाने को कहो जिससे कि आगे बढ़ने में सहायता मिले, लेकिन फिर वे कभी वापस ही नहीं लौटेंगे। फिर वह एक नशा बन जाएगा और वे हमेशा के लिए कमजोर रह जाएंगे, वे संसार में वापस आने से डरेंगे। फिर उनका एकांत सहयोगी नहीं हुआ; बल्कि बाधा बन गया। ये दोनों ही गलत हैं। तीसरी तरह के होना है, जो कि सम्यक हैं। पहले ठीक से जान लो कि तुम परिस्थिति के कारण अशांत हो; तो उससे बाहर निकलने की चेष्टा करो। फिर जब उससे बाहर हो जाओ तो जो भी मौन तुम्हें उपलब्ध हो, उसे अपनी परिस्थिति में लौटा लाओ और उसे बचाए रखो। यदि तुम उस परिस्थिति में भी उसे बचा सको, केवल तभी तुम्हारा सिद्धांत तुम्हारा अनुभव बना।

ओशो

मूढ़ मन निर्णय करते हैं, बुद्ध मन कृत्य करते हैं

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